भारतवर्ष की पवित्र भूमि पर जहाँ देवता भी जन्म लेने में अपने को कृत्कृत्य मानते हैं, समय-समय पर अधर्म के नाश और धर्म के उत्थान हेतु महान् तपस्वी, महात्मा व लोकसंग्रही महापुरुषों ने अवतार लिया है।
इसी महान् परम्परा में जनमानस के हृदय में भगवद भक्ति की अक्षुण्ण भागीरथी धारा प्रवाहित करने वाले महाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्य का भी यहाँ अवतार हुआ। वल्लभाचार्य ने अन्य वैष्णव आचार्यों की भाँति भक्ति के शास्त्रीय स्वरूप को ही अधिक महत्व दिया है। उत्तर भारत में प्रभु श्रीकृष्ण की भक्ति को दृढ़ता प्रदान करने में उनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
उन्होंने जहाँ एक ओर भगवतकृपा पर आधारित भक्तिपरक 'पुष्टिमार्ग' का प्रवर्तन किया वहीं दूसरी ओर 'शुध्दाद्वैत' नाम से दार्शनिक सिध्दांत का प्रतिपादन भी किया। साथ ही अपने मतानुसार विधि-विधान सहित पूजा-प्रक्रिया भी सुनिश्चित की। इस प्रकार वल्लभ मत का सैध्दान्तिक व व्यावहारिक पक्ष दोनों ही अत्यन्त पुष्ट और समृध्द है।
भगवदनुग्रह पर आधारित उनके पुष्टिमार्ग ने अपनी स्वाभाविकता, सरलता तथा मानवीयता के कारण आसामान्य लोकप्रियता व अर्जित की है। प्रमाणस्वरूप वल्लभमत में दीक्षित 'अष्टछाप' कवि और उनका लोकप्रिय साहित्य है। इनमें सूरदास और नन्ददास सबसे लोकप्रिय कवि एवं कृष्णभक्त थे।
शुध्दाद्वैत सिध्दांत के प्रतिपादक श्रीमद्वल्लभाचार्य का जन्म संवत् 1535 में छत्तीसगढ़ में रायपुर के पास चम्पारण नामक ग्राम में हुआ था। इनके पूर्वज अन्ध्रप्रदेश में व्यामस्तम्भ पर्वत के समीप कृष्णा नदी के दक्षिण की ओर काँकरवाड़ नामक नगर में रहते थे। यह तैलंग ब्राह्मण परिवार अत्यन्त कुलीन, सदाचारी, धर्मनिष्ठ, वैष्णव धर्म में दीक्षित शुध्द वेलनार (यावेलनाडू)यजुर्वेद तैत्तरीयशाखीय और भरद्वाजगोत्रीय था। इनकी कुलदेवी परशुरामजी की माता रेणुकाजी थीं। इस विप्र परिवार के पूर्व पुरुष श्री गोविन्द आचार्यजी के कुल में यज्ञनारायण दीक्षित (भट्ट) जी हुए। इन्होंने परमभागवत और भगवान् श्री कृष्ण अनन्य उपासक, द्रविड़ देश के निवासी विष्णुमुनि से गोपाल-यंत्र की दीक्षा ली। तब से उनके उपदेशानुसार निरन्तर भक्तिपूर्वक भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करते हुए वे अपने कुल की परम्परानुसार यज्ञ भी करते रहे। कहा जाता है कि इकतीस यज्ञ करके बत्तीसवें यज्ञ के समय ध्यानावस्था में भगवान ने इन्हें दर्शन दिए और सौ यज्ञ पूरे होने पर उन्हीं के वंश में अवतरित होने का वरदान दिया।
अपने धर्मनिष्ठ कार्यों से लोकमंगल करते हुये और ब्राह्मण धर्म का पालन करते हुए श्री यज्ञनारायण ने जब बैकुण्ठवास किया तब उनके पश्चात् उनके पुत्र सोमयाजी ने अपने पिता की सात्विक वृत्ति का अनुसरण का अट्ठाईस सोमयज्ञ, पौत्र गणपति भट्ट ने तीस सोमयाग और प्रपौत्र बालभट्ट ने पाँच सोमयज्ञ किये। बालभट्टजी के दो पुत्र थेलक्ष्मण भट्ट और जर्नादन भट्ट। वल्लभाचार्य श्री लक्ष्मण भट्टजी के पुत्र थे।
लक्ष्मण भट्ट प्रसिध्द विद्वान थे। इन्होंने विद्यानगर के राजपुरोहित सुशर्मा नामक विद्वान की पुत्री यल्लमागारु से विवाह किया। इन्होंने कुल की परम्परानुसार पाँच सोमयज्ञ कर यज्ञनारायण भट्ट के द्वारा लिए गए सौ सोमयज्ञ करने के व्रत को पूर्ण किया। उस समय तक कांकरवाड़ नगर का पराभव हो चुका था अत: इनका परिवार अगहार नामक ग्राम में आकर रहने लगा था। सौ सोमयज्ञ पूरे हो जाने पर लक्ष्मण भट्ट ने यज्ञ की पूर्णाहुति के लिए सवा लाख ब्राह्मण भोज का संकल्प किया इसलिए वे परिवार सहित काशी में आकर रहने लगे। इसी बीच एक दिन श्री लक्ष्मण भट्ट जैसे ही स्नान करने के लिए गंगा तट पर पहुँचे तो उन्हें समाचार मिला कि तत्कालीन युगल बादशाह काशी पर आक्रमण करने आ रहा है। इस समाचार को सुनकर नगरनिवासी नगर छोड़कर भागने लगे। यह देखकर लक्ष्मण भट्टजी भी अपने परिवार तथा दक्षिण के अन्य व्यक्तियों के साथ अपने ग्राम अग्रहार के लिए चल पड़े। मार्ग में रायपुर के समीप चम्पारण्य ग्राम में कृष्णपक्ष की ऍंधेरी रात्रि में यल्लमागारु को आठ मास का बालक उत्पन्न हुआ। मृत बालक को देखकर उन्होंने उसे एक वस्त्र में लपेटकर शमीवृक्ष के कोटर में रख दिया और ऊपर से पत्ते ढाँक दिए। फिर शोकग्रस्त लक्ष्मणभट्टजी अपने दल के साथ आगे बढ़े और कुछ दूर पर रात्रि व्यतीत करने के लिये विश्राम किया। रात्रि में लक्ष्मण भट्ट और यल्लामागारु को भगवान् ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि मैं अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए तुम्हारे कुल में अवतरित हुआ हूँ। प्रात: पति-पत्नी ने एक-दूसरे को अपने-अपने स्वप्न सुनाए। इसी बीच उन्हें समाचार मिला कि काशी जाने को तैयार हुए। मार्ग में ज्यों ही दम्पति ने उस शमीवृक्ष को देखा वो आश्चर्यचकित हो उठे क्योंकि वह वृक्ष चारों ओर से अत्यन्त तेज से घिरा हुआ था अद्भुत प्रभामण्डल से युक्त एक सुन्दर बालक वहाँ खेल रहा था।
लक्ष्मण भट्ट ने उस दिव्य बालक के शुभ-संस्कार कर उसका नाम श्री वल्लभ रखा। वल्लभाचार्य का जन्म संवत् 1535 की वैशाखी एकादशी को घनिष्ठा नक्षत्र की रात्रि में हुआ था। आज भी उनके जन्मस्थान चम्पारण्य में बैठक बनी हुई है और मान्यता है कि उस वन में यदि कोई गर्भवती स्त्री जाती है तो उसका गर्भपात हो जाता है। लक्ष्मण भट्ट जी पाँच सन्तानें थींरामकृष्ण, सुभद्रा, सरस्वती, वल्लभ और और केशव। जिनमें वल्लभ ही दिव्य-चिन्हों से युक्त तथा कुशाग्र बुध्दि के थे। जब ये सात वर्ष के हुए तो स्वयं लक्ष्मण भट्टजी ने उन्हें विधिपूर्वक सावित्री-यन्त्र का उपदेश दिया और विद्याध्ययन हेतु प्रतिष्ठित विद्वान कृष्ण यजुर्वेद की तैतरीय शाखाध्यायी श्री विष्णु उपाध्याय के पास भेजा। श्री वल्लभ ने अध्ययन काल में ही 'ब्रह्मवाद' (शुद्वाद्वैत) का प्रवर्तन किया। समय मिलने पर इन्होंने अपने सिध्दांत का सहपाठियों में प्रचार करना भी आरम्भ कर दिया था। अपनी प्रखर मेघा तथा स्वाभाविक बुध्दि-वैभव के कारण उन्होंने थोड़े ही समय में विद्वत् समाज में सम्मानीय स्थान प्राप्त कर लिया। जब ये 12 वर्ष के ही थे तभी उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। वल्लभाचार्य ने भक्ति के प्रचार-प्रसार के लिए अपने जीवन में भारतभूमि की तीन परिक्रमाएँ कीं। जिनमें प्रथम परिक्रमा उन्होंने पिता के गोलोकवास के पश्चात् 12 वर्ष की अल्पायु में ही प्रारम्भ की । सर्वप्रथम वे प्रयाग मार्ग से चित्रकुट तथा भृगुतुङ्ग होते हुए अपने जन्मस्थान चम्पारण्य पहुँचे। वहाँ महानदी के किनारे अपने शिष्यों के द्वारा बनवाई गई वेदी पर बैठकर उन्होंने महाभागवत का पारायण कर भगवान् गोपी-वल्लभ श्रीकृष्ण के बसन्तोत्सव के लिए वही हिंडोल-महोत्सव भी बनाया। वहाँ लोगों के हृदय में भक्ति-भावना का संचार करते हुए अपने पूर्व पुरुषों के ग्राम अग्रहार आए। यहाँ पर उनके चाचा श्री जनार्दन भट्ट और ग्राम के निवासियों ने अत्यन्त स्नेह और भक्ति के साथ उनका भव्य स्वागत किया।
विद्यानगर (विजयनगर) के निवासी उनके मामा ने अपनी बहन तथा भान्जे श्रीवल्लभ को बुलाने के लिए एक ब्राह्मण को भेजा। उससे ही वल्लभाचार्य को समाचार प्राप्त हुआ कि तुंगभद्रा के तट पर स्थित विद्यानगर के राजा कृष्णदेव राय बड़े धार्मिक हैं और विद्वानों का समुचित आदर करते हैं। इस समय वे धर्म-सम्मेलन करके सब सम्प्रदायों के प्रमुख आचार्यों को बुलाकर यह निर्णय करना चाहते हैं कि कौन-सी धर्मोपासना अधिक श्रेयस्कर है, वे उसके ही अनुयायी बनेगे। शांकर मत के विद्वानों ने माध्वाचार्य व्यास्तीर्थ को परास्त कर दिया था और दूसरे दिन शंकराचार्य का कनकाभिषेक होने वाला था। यह सुनकर श्रीवल्लभ ने सभा में जाने का निश्चय किया। सभा में इनकी अल्पायु और तेज देखकर सभी आश्चर्य चकित और प्रभावित हुए। राजा कृष्णदेव ने वल्लाभाचार्य का सम्मान किया और शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। वहाँ अद्वैतवाद पर तो विचार हो ही रहा था इन्होंने अपने पुष्टिमार्ग के सिध्दान्त के अनुसार अपने ब्रह्मवाद का पक्ष लेकर अत्यन्त पाण्डित्यपूर्ण शैली में अपने प्रतिपक्षियों के एक-एक तर्क का सयुक्तिक प्रतिवाद करते हुए विशुध्दाद्वैतपरक ब्रह्मवाद अर्थात् शुध्दाद्वैत मत की स्थापना की। इस समय में 13 या 14 वर्ष के ही थे। कृष्णदेव ने वल्लाभाचार्य का शिष्यत्व ग्रहण कर उन्हें 'अखण्डभूमण्डलाचार्यवर्य जगद्गुरु श्री वल्लभाचार्य महाप्रभु' की उपाधि से विभूषित किया।
इसके पश्चात राजा कृष्णदेव ने महाप्रभु का कनकाभिषेक किया और धन, सुवर्णाभूषण इत्यादि समर्पित किए। परन्तु वल्लभाचार्य ने स्वयं कुछ भी न स्वीकारते हुए समस्त सम्पत्ति सभी लोगो में दान करवा दी। उनके इस कृत्य व त्याग से उपस्थित समस्त जन विस्मित हो उठे। इसके पश्चात् कृष्णदेव ने आचार्य से स्वयं को परिवार सहित शरण में लेने की प्रार्थना की। तब आचार्य ने उन्हें सपरिवार 'शरणाष्टक मन्त्र' (श्री कृष्ण: शरणं मम) की दीक्षा दी तथा वैष्णव धर्म के चिन्ह स्वरुप तुलसीमाला प्रदान की। आचार्य की प्रथम यात्रा की यह प्रमुख घटना है।
इस तरह आचार्य शुध्दाद्वैत मत की स्थापना तथा पुष्टिमार्ग का प्रचार करते हुए भारतवर्ष की प्रथम परिक्रमा कर अग्रहार ग्राम में स्वजनों के पास लौटे। कुछ समय के पश्चात् द्वितीय परिक्रमा का संकल्प कर मंगलप्रस्थ और वेंकटाचलम् होते हुए आप विद्यानगर पधारे तथा राजा कृष्णदेव को श्री गोपालनन्दन की भक्ति और उपासना की विधि का उपदेश देकर पण्ढरपुर गये। वहाँ प्रभु विद्वलनाथ जी ने उनके वंश के माध्यम से पुष्टिमार्ग के समुचित प्रचार के लिए उन्हें विवाह करने की आज्ञा दी। वहाँ से पश्चिम प्रदेशों की यात्रा पूर्ण कर आचार्य ब्रज में आए। गोवर्ध्दन पर्वत पर श्रीनाथजी का प्राकटय होने पर आचार्य ने उनकी विधिपूर्वक स्थापना की। तत्पश्चात् ब्रजयात्रा पूर्णकर वहाँ से बद्रीनाथ गये। फिर वहाँ से गंगासागर व गुजरात होते हुए अपनी दूसरी यात्रा पूर्णकर काशी पधारे। काशी में ही संवत् 1562 के आषाढ़ मास शुक्ल पञ्चमी को श्री देवभट्ट की सुलक्षणा पुत्री महालक्ष्मी के साथ श्रीवल्लभ परिणयसूत्र में बंधे विवाह के समय इनकी अवस्था 28 वर्ष की थी। विवाहोपरान्त छह माह तक काशी में ही निवास करने के पश्चात् उन्होंने तृतीय परिक्रमा प्रारम्भ की।
काशी से प्रस्थान करके श्रीमद्वल्लभाचार्यजी सर्वप्रथम वैद्यनाथ के तरुखण्ड गए। वहीं पर रात्रि में भगवान् गोवर्धन ने स्वयं प्रकट होकर कहा कि आप ब्रज में आकर मेरी सेवा का प्रकार निश्चित करें। आचार्य ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर ब्रज आकर उनकी सेवा का प्रकार सुनिश्चित किया और भक्त पूरणमल को विशाल मन्दिर निर्माण का आदेश दिया। इसके पश्चात जगन्नाथपुरी तथा गुजरात की यात्रा करके बद्रीनाथ, हरिद्वार, कुरूक्षेत्र होते हुए पुन: ब्रज आकर श्रीनाथजी के दर्शन किए।
इस प्रकार 18 वर्षों में श्रीमद्वल्लाभाचार्य ने भारतवर्ष की तीन परिक्रमाएँ पूर्ण की जिसमें प्रथम परिक्रमा में नौ वर्ष, दूसरी में पाँच वर्ष और तीसरी में चार वर्ष लगे। आचार्य ने इन प्रदक्षिणाओं के माध्यम से सम्पूर्ण भारतवर्ष में व्यापक स्तर पर कृष्णभक्ति व पुष्टिमार्ग का प्रचार किया। प्रथम प्रदक्षिणा में उन्होंने विभिन्न स्थलों पर विद्वानों तथा प्रतिद्वन्द्वियों से शास्त्रार्थ कर उन्हें परास्त किया तथा सम्यक् रूप से शुध्दाद्वैत सिध्दांत की स्थापना की। द्वितीय प्रदक्षिणा में प्राप्त लोकविश्वास के आधार पर विभिन्न स्थानों पर अपने शिष्यों के संघ स्थापित किए और तृतीय प्रदक्षिणा में उन शिष्यों के और भावीपीढ़ियों के हृदय में भक्ति का अंकुर दृढ़ करने के लिए स्थान-स्थान पर श्री गोपाल नन्दन के मन्दिर स्थापित किए क्योंकि बिना किसी दृढ़ आधार के भक्तिलता भलीभाँति पल्लवित और पुष्पित नहीं होती। इस प्रकार आचार्यजी के सत्प्रयत्नों से दक्षिण प्रान्तों, गुजरात, मारवाड़ तथा ब्रजक्षेत्र में कृष्णभक्ति के असाधारण लोकप्रियता, आस्था और सम्मान प्राप्त हुआ। तीनों परिक्रमाओं के पूर्ण हो जाने पर उन्होंने काशी में तीस हजार ब्राह्मणों को भोज दिया। इसके पश्चात् गंगायमुना की पवित्र संगमस्थली प्रयाग में यमुना तटपर स्थित अरैल नामक स्थान पर आकर सकुटुम्ब निवास करने लगे। यहाँ महालक्ष्मीजी ने सं. 1567 में ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथ को जन्म दिया। पुत्र के जन्मोत्सव पर आचार्य ने बड़े समारोह के साथ ज्योतिष्टोम याग भी सम्पन्न किया। सं. 1572 में आचार्य के यहाँ कनिष्ठ पुत्र विट्ठलनाथ का जन्म हुआ, जिसने आगे चलकर सम्प्रदाय के संवर्धन और संरक्षण में बहुमूल्य योगदान दिया।
प्रत्येक महापुरुष और महान् विभूतियों के साथ कई असाधारण घटनाएँ और चामत्कारिक कथाएँ जुड़ी होती हैं। जो उनको सामान्य लोगों से पृथक् और असाधारण बनाती है तथा लोगों के हृदय में उनके प्रति आस्था और श्रध्दा उत्पन्न करती है। इसी तरह श्रीमद्वल्लभाचार्य के द्वारा भी किए गए अनेक चमत्कारों की कथाएँ प्रसिध्द हैं। आचार्य को अग्नि का अवतार माना जाता है। एक बार आचार्यजी भागवत-कथा का पारायण कर रहे थे। वहाँ उपस्थित एक व्यक्ति को आचार्यश्री के अग्निस्वरूप होने पर सन्देह हुआ। तभी आचार्य ने ''मेरे उदर में व्यथा हुई है''कहकर अपने शिष्य से कुछ औषधि मँगवाई और उसे सामने प्रज्ज्वलित अग्नि में डाल दिया। ऐसा करते ही उनकी उदर-पीड़ा शान्त हो गई और उस व्यक्ति के संशय का निवारण भी हो गया। इसी प्रकार आचार्य श्री ब्रज व कुरूक्षेत्र की यात्रा में अनेक व्यक्तियों को अपनी शरण में लेते हुए गुजरात के देशाधिपति के गाँव पहुँचे। वहाँ उसने किसी भी व्यक्ति को महल के नीचे से सवारी में बैठकर न जाने की आज्ञा दे रखी थी। यह बात शिष्य ने आचार्य को बताई तो उन्होंने अपनी सवारी वही से ले चलने की आज्ञा दी। तभी लोगों की शिकायत पर देशधिपति उनको रोकने के लिए वहाँ पहुँचा परन्तु उसे आचार्यजी के दर्शन एक तेजपुन्ज के रूप में हुए। उसने कहा मैं मनुष्य के साथ तो लड़ सकता हूँ, अग्नि से नहीं।
सिकन्दर लोदी के शासनकाल की एक अत्यन्त चमत्कारी घटना है। उस समय मुसलमानों के द्वारा हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया जा रहा था। उसी समय आचार्यजी मथुरा आये वहाँ उन्हें विदित हुआ कि गोकुल के काजी ने बादशाह की आज्ञा से विश्राम घाट पर एक ऐसा यन्त्र लगा दिया है जो उसके नीचे से निकलने वाले हिन्दू की शिखा नष्टकर दाढ़ी बढ़ा देता है। इससे यमुना नदी में स्नान में बाधा उत्पन्न हो रही थी। सभी भक्तों ने आचार्य से इस समस्या के समाधान के लिए आग्रह किया। तब आचार्य ने एक मन्त्र कागज पर लिखकर उस यन्त्र के आगे अपने शिष्य केशव भट्ट के द्वारा लगवा दिया, जिससे जो भी यवन उस मन्त्र के नीचे से जाए उसकी दाढ़ी नष्ट होकर शिखा उत्पन्न हो जाये। तब परेशान होकर सिकन्दर लोदी ने केशव भट्ट को बुलाकर पूछा और उससे आचार्यजी की महत्ता सुनकर अत्यन्त प्रभावित व प्रसन्न हुआ। साथ ही विश्रान्तघाट से उस यन्त्र को हटवा लिया।
इसी तरह एक बार जब आचार्य द्वितीय परिक्रमा करते हुए पञ्चासर तीर्थ में भागवत-कथा का पारायण कर रहे थे कि कहीं से उड़ता हुआ एक सुन्दर प्यासा हंस आचार्य चरण के समीप पहुँचा और उनका चरणोदक पीने का प्रयत्न करने लगा, किन्तु वहाँ इतनी भीड़ थी कि उसकी इच्छा सफल नहीं हो पा रही थी। यह देखकर सेवक कृष्णदास ने एक पात्र में श्रीवल्लभ का चरणोदक लेकर उसके ऊपर छिड़क दिया। जल के पड़ते ही वह हंस तत्काल परम तृप्त होकर सबके देखते-देखते आकाश में उड़कर विलीन हो गया। इस प्रकार महाप्रभु के दर्शन या चरणोदकपान से रोगमुक्ति व वैकुण्ठप्राप्ति की अनेक घटनाएँ प्रसिध्द हैं। नि:सन्देह महाप्रभु तेजस्वरुप और आसाधारण शक्तियों के स्वामी थे।
श्रीमद्वल्लभाचार्य उदार, स्नेहशील और सहिष्णु प्रवृत्ति के थे। उन्होंने आने शुध्दाद्वैत मत की स्थापना के लिए यद्यपि अनेक शास्त्रार्थ किए और विजयी हुए तथापि उनमें रंचमात्र भी घमण्ड या द्वेष का भव उत्पन्न नहीं हुआ। उनके जीवन से जुड़ी एक घटना से यही बात प्रमाणित होती है। उनके समकालीन चैतन्य महाप्रभु से उनका विशेष प्रेम था। एक बार चैतन्य महाप्रभु बंगाल से वृन्दावन जाते समय अरैल आए। आचार्य ने उनका समुचित अतिथि सत्कार किया परन्तु उस समय राजभोग लग चुका था तथापि आचार्य ने स्वभावत: उनको अपना प्रतिद्वन्दी न मानते हुए उन्हें अनिवेदित भोजन-सामग्री में से ही भोजन कराया जबकि उस समय वे आसानी से उन्हें अपना प्रतिद्वन्दी स्वीकार कर सकते थे। ऐसी ही आचार्य के विषय में अनेक घटनाएँ लोक में प्रचलित हैं परन्तु सभी वर्णन यहाँ सम्भव नहीं हैं।
श्रीमद्वल्लभाचार्य ने अपने मत को शास्त्रीय आधार प्रदान करने के लिए प्रभूत मात्रा में ग्रन्थों का प्रणयन किया। अरैल में निवास करते हुए ही उन्होंने शुध्दाद्वैत दर्शन के मानक ग्रन्थ 'अणुभाष्य' की रचना की। जगन्नाथ धाम में जब आचार्य ने श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध तक अपनी टीका 'सुबोधिनी' पूर्ण कर ली, तब उन्हें भगवन ने नित्यलीला में प्रवेश करने की प्रथम आज्ञा दी। अत: उन्होंने चार से नौ स्कन्ध तक की सुबोधिनी लिखने का कार्य छोड़कर दशम स्कन्ध पर टीका लिखने का कार्य प्रारम्भ किया। आचार्य यहाँ से ब्रजयात्रा कर मथुरा पहुँचे और उन्हें भगवध्दाम में पधारने की दूसरी आज्ञा हुई। परन्तु अभी सुबोधिनी का कार्य पूरा न होने से आचार्यजी आगरा व काडेग़ाँव होकर अरैल आए और दशम स्कन्ध की सुबोधिनी समाप्त कर एकादश स्कन्ध की सुबोधिनी आरम्भ की। तभी इन्हें तीसरी व अन्तिम भगवदाज्ञा हुई। तत्पश्चात् उन्होंने अपनी माता और पत्नी से संन्यास की अनुमति चाही। शोक संतप्त परिवार से अनुमति पाकर भागवत रीति से संन्यास आश्रम स्वीकार करने का निश्चय कर लिया। इन्होंने इसी समय 'संन्यास निर्णय' ग्रन्थ की रचना की और श्रीमाधव उपाध्याय से संन्यास की दीक्षा ली। इस चतुर्थ आश्रम की मर्यादा के अनुसार उन्होंने अपना नाम 'पूर्णानन्द' रख लिया और कुटीचक्र आश्रम धारण कर कषाय वस्त्र, त्रिदण्ड, शिखासूत्र, यज्ञोपवीत सहित भागवत संन्यास की रीति से सम्पूर्ण दैनिक विधि का पालन करते हुए छह दिन तक अपने घर में ही भोजन करते रहे। इसके पश्चात् 'बहूदक आश्रम' ग्रहण करके गंगा तीर पर निवास करते हुए अपने सम्बन्धियों के घर भिक्षाचरण करते हुए उन्होंने आठ दिन व्यतीत किए। फिर 'हंसाश्रम' ग्रहण कर काशी के लिए प्रस्थान किया और मार्ग में अन्य माननीय परमभागवतों से भिक्षा लेते हुए अट्ठारह दिनों में काशी पहुँचे। यहाँ 'चरणहंसाश्रम' में सात दिन रहकर कौपीन मात्र धारण करके गंगा में प्रवेश करने को तैयार हुए कि तभी उनके दोनों पुत्र गोपीनाथ एंव विट्ठलनाथ वहाँ पहुँचे और अपनेर् कत्तव्य के लिए उपदेश की प्रार्थना करने लगे। उस समय आचार्य ने खड़िया से शिला पर तीन श्लोक लिखे जो 'शिक्षा श्लोक' के नाम प्रसिध्द हैं।
संवत् 1578 के आषाढ़ शुक्लपक्ष की द्वितीया को पुष्प नक्षत्र में आचार्य चरण प्रात:काल से ही भगवान का नाम जपने लगे। जब सूर्य आकाश में चढ़ गया तब श्रीमद्वल्लभाचार्य (पूर्णानन्द) भगवन् श्रीकृष्ण की तृतीय व अन्तिम आज्ञा शिरोधार्य कर भागीरथी में प्रविष्ट होकर जल में समा गए। फिर उन्होंने ज्वालपुञ्ज मार्ग से बैकुण्ठ को प्रस्थान किया। जिस स्थान पर उन्होंने जलसमाधि ली थी वहाँ गंगा के जल से आकाश के शिरोबिन्दु तक एक ज्योति स्तम्भ लगभग तीन घण्टे तक स्थिर रहा।
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